आज इस भागम -भाग ज़िंदगी में हमारा आत्मस्वरूप का अंत हो रहा है ये एक दिन में होने वाली घटना नहीं है ये निरन्तर हमारे द्वारा किये गए कार्य का प्रतिफल है जो स्थाईरूप से हमारी मनोदशा में एक प्रश्न चिन्ह के रूप में भी है।
हमने अपने लिए एक ऐसा वातावरण घटित कर रखा है कि हमारी स्मृति और चिंतन दोनों का पतन हो रहा है।
हम जो " श्रवण " करते है उसे ही धारण कर लेते है और उसके बाद उसी का " मनन " करते है फिर उसी के बारे में " चिंतन " करते रहते है।
हम बिना विचार किये उसे आत्मस्वरूप मान लेते है बल्कि हमने अपना ज्ञान और विवेक का साथ नहीं लिया और न ही इस बात को गंभीरपूर्वक और आत्मस्मृति से जोड़ा , जिसके फलस्वरूप हम जो भी कार्य करते है वो थोड़े समय के लिए हमें सुख कि अनुभूति कराता है इसके पश्चात हमे निराशा ही हाथ लगती है।